Monday, December 16, 2019

"पानी रे! पानी"



तेरी कदर किसी ने न जानी,
जब नहीं मिलता है,
दुनियाँ हो जाती दीवानी,
अपने शहर में देखता हूँ,
बर्तन लेकर भागते लोग,
पानी की खोज में,
कहाँ मिलेगा?
प्यास बुझाने के लिए,
अनमोल पानी.

जल को बचाते थे लोग,
परम्परा है पुरानी,
कहते हैं  आज मानव सभ्य है,
पीने लगा बोतल बन्द पानी,
ये विकल्प नहीं कालजयी,
भाग रहा दूर जिम्मेदारी से,
कर रहा है नादानी.

पहाड़ दम तोड़ रहा है,
जहाँ से निकलता है,
नदियों  के नीर के रूप में,
पवित्र गंगा, यमुना का पानी,
लील रहा मानव प्रकृति को,
मित्रता नहीं रखता उससे,
कर रहा कैसी नादानी.

हिमालय के आंसू निकल रहे,
मत समझना उसे पानी,
पिघल चुका है दिल उसका,
हो रहा बर्फ विहीन,
ऐ मानव!
प्रकृति का मिजाज बदला,
तेरी ही है मेहरबानी,
कवि "जिज्ञासु" की कल्पना नहीं,
ये आईना है सच्चाई का,
 "पानी रे! पानी",
तेरा हाल ऐसा क्योँ हुआ?

कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित "पानी रे! पानी" ३०.४.२०१०)
दूरभास: ०९८६८७९५१८७
(प्रकाशित: यंग उत्तराखंड पोर्टल, मेरा पहाड़ पर)   

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