(रचनाकार:जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
हात जोड़ै छ आपसी, प्यारा उत्तराखंडी भै बंधो,
तुम यनु नि सोच्यन, हम बौळ्या छौं.....
अपणि प्यारी बोली भाषा मा,
हमारा प्यारा गितांग भैजिन,
वे प्यारा उत्तराखंड की शुर्मा,
द्वी गति बैशाख मेळा मा बुलाई,
कुतग्याळि लगौण वाळा गीत लगैक,
हर उत्तराखंडी का मन मा,
अपणि प्यारी बोली भाषा कू प्रेम जगाई...
हमारू भि प्रयास यु हिछ,
वे प्यारा उत्तराखंड कू मान बढौला,
आज आयां छौं हम यख,
अपणि प्यारी बोली भाषा मा,
भलि भलि छ्वीं बात लगौला,
जब जब जौला मुल्क अपणा,
कोदा की रोठ्ठी का दगड़ा,
घर्या घ्यू अर कंडाळि खौला.....
मान सम्मान बोली भाषा कू,
प्यारा पहाड़ की संस्कृति कू,
आवा मिलि बैठिक आज,
बिंगला अर बिंगौला.......
मुल्क हमारू कथगा प्यारू,
जख फ्योंली, बुरांश, आरू, घिंगारू,
हमारा तुमारा मन मा बस्युं,
क्या बतौण कथगा प्यारू......
हात जोड़ै छ आपसी,
क्या बतौण कवि मन छ हमारू,
यी मन का ऊमाळ कवि "जिज्ञासु" का,
तुम यनु न सोच्यन, यू बौळ्या छ....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १०.११.११ को रचित)
फरीदाबाद मा "अन्ज्वाळ" द्वारा आयोजित कवि सम्मलेन का खातिर रचिं या मेरी कविता जैन्कू पठन दिनांक ११.१२.११ कू मैन मंच फर मौजूद श्री नरेंद्र सिंह नेगी जी, श्री हीरा सिंह राणा जी, गणेश खुगशाल "गाणि" जी, डा. मनोज उप्रेती जी अर अन्य कवि मित्रों का समक्ष करि.
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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