(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
जिंदगी मा, मैन जू भि करि,
दारू पीक दरोळु बण्यौं,
गौं की गुजारी मा, पड़्युं रयौं,
खै पीक बेहोश होयौं,
जनकैक छोरा छारा, घौर ल्हेन,
पर वीं भग्यानन कुछ नि बोलि.....
वींमा मैन झूट भि बोलि,
दुनियान मैकु झूट्टू बोलि,
पर अपणा मन की गेड़,
मैन वींमा कब्बि नि खोलि,
क्या बोन्न हे दुनिया वाळौं,
पर वीं भग्यानन कुछ नि बोलि.....
सारी जिंदगी वींका दगड़ा बिताई,
पर वींकू ख्याल कम ही आई,
जिंदगी भर दुनिया देखि,
वींका हाल फर मैकु,
तरस कब्बि नि आई,
खूब सेवा करि वींन मेरी,
क्या बोन्न कर्म मेरा यना रैन,
पर वीं भग्यानन कुछ नि बोलि.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १९.१२.२०११)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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