(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
रौंत्याळु मुल्क छ, बल हे! हमारू,
जख गौं का न्यौड़ु, पाणी कू धारू,
देव्तौं का मंडुला, हरीं भरीं रौंत्याळि सार,
बण बूट प्यारा, रंगीला त्यौहार,
ज्यू करदु झट्ट चला, अपणा प्यारा मुल्क,
जख फुन्ड घुघति, दनकदि सुरक सुरक,
प्यारा बुरांश फ्योंलि कू, जू छ बल मुल्क,
डांडा, धार, गाड, गदना, जख पुंगड़ा प्यारा,
बांज, देवदार, कैल, रंसुळा, बगवान न्यारा,
शिवजी कू कैलास, पार्वती जी कू मैत,
देव्तौं की भूमि, कनु भाग हमारू,
जन्म भूमि छ हमारी तुमारी,
कवि "जिज्ञासु" की "तौं डाँड्यौं का पोर"...
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाश्ति)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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