Tuesday, December 20, 2011

"कथगा दिनु मा मिल्यौं आज"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
मेरु बचपन कू एक दगड्या,
अपणा प्यारा मुल्क पहाड़ मा,
चन्द्रबदनी मंदिर का मेळा मा,
ऊँचि धार ऐंच मैकु मिलि.

ऊ अर मैं,
शहर की जिंदगी सी दूर,
बेखबर खड़ा था होयां था,
ओडा का डांडा बिटि,
ठण्डु बथौं फर फर औणु थौ,
कखि दूर हैन्स्दु हिमालय,
दूध जनु सफ़ेद अर प्यारू,
बांज बुरांश कू मुल्क हमारू,
हमारा मन मा ऊलार पैदा कन्नु थौ.

बचपन की छ्वीं बात लगिन,
कख कख छन दगड्या प्यारा,
घर अर परिवार की बात,
कुतग्याळि सी लग्यन मन मा,
बित्याँ दिनु की बात याद करिक,
समय कू पता नि लगि,
कथगा देर बैठ्याँ रैग्यौं,
समय सामणि खड़ु थौ,
वैन बोलि, जवा अब घौर जवा,
मिन्न कू अब बगत ख़त्म ह्वैगी,
दगड्या अर मैं अपणा बाटा हिट्यौं,
हमारा मुख सी छुटि,
"कथगा दिनु मा मिल्यौं आज".
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २१.१२.२०११)
www.pahariforum.net
http://jagmohansinghjayarajigyansu.blogspot.com/

2 comments:

  1. क्या बात है जयाडा जी कि आपका मन फुर-फुर बथौं अर ठण्डो-ठण्डो पाणी में ही रमा रहता है.घर, गाँव, समाज व पहाड़ की यादें आपने मन में कहीं गहरे तक बैठ गयी है. आपकी ये भावपूर्ण कवितायेँ हमें भी बार बार पीछे मुड़ने को बाध्य करती है. ऐसी ही एक कविता मेरे ब्लॉग पर भी आप पढ़ सकते हैं " अपने अपने अतीत " शायद आपको पसंद आये.
    इस सुन्दर कविता के लिए आभार!

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  2. क्या बात है जयाडा जी कि आपका मन फुर-फुर बथौं अर ठण्डो-ठण्डो पाणी में ही रमा रहता है.घर, गाँव, समाज व पहाड़ की यादें आपने मन में कहीं गहरे तक बैठ गयी है. आपकी ये भावपूर्ण कवितायेँ हमें भी बार बार पीछे मुड़ने को बाध्य करती है.
    ऐसी ही एक कविता मेरे ब्लॉग पर भी आप पढ़ सकते हैं " अपने अपने अतीत " शायद आपको पसंद आये.
    इस सुन्दर कविता के लिए आभार!

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