(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
हमर पहाड़, म्यर पहाड़,
हमारू पहाड़, मेरु पहाड़,
देवतौं कू प्यारू पहाड़,
ब्वै बाबू कू प्यारू पहाड़,
मन मा बस्युं प्यारू पहाड़,
पर्वतजन कू प्यारू पहाड़,
दुनिया मा न्यारू पहाड़,
जू भी बोला,
पराणु सी प्यारू पहाड़...
देवतौं कू वास जख,
बद्री-केदार जख,
शिवजी कू कैलाश जख,
गंगा माँ कू, नन्दा माँ कू,
प्यारू छ मैत जख,
मुल हैंस्दु बुरांश जख,
हिंवाळि कांठ्यौं तैं हेरी,
गर्व होन्दु छ मन मा,
जन्म-भूमि ज्व छ मेरी,
पराणु सी प्यारू पहाड़...पहाड़ का रंग प्यारा,
पय्याँ,फ्योंली अर बुरांश,
दिख्दा छन जख न्यारा,
बांज, बुरांश, देवदार, कैल,
कुळैं की डाळी कू छैल,
जख धोंदी गंगा माँ,
मनख्यौं का तन मन कू मैल,
सदानि जुगराजि रान,
पराणु सी प्यारू पहाड़...(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २७.१२.२०११)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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