(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
मैं छान का भितर,
सेयुं थौ फंसोरिक,
कै दगड़्यान दस्तक दिनि,
हे चुचा, क्या छैं तू आज सेयुं,
भैर देख घाम ऐगी, ऊजाळु ह्वैगी,
बौग न मार, मेरु बोल्युं सुण,
अपणा मन मा गुण,
भोळ न बोलि मैकु,
बग्त की कदर कर,
फिर बौड़िक नि आलु,
त्वैन भौत पछ्ताण,
फंसोरिक न स्यो,
मैं "दस्तक" देणु छौं आज....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १३.१२.२०११)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Monday, December 12, 2011
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