Thursday, June 11, 2015

मन कू बैम.....

घिमणाट सिमणाट होयुं छ,
यू निर्भागि ज्‍यु पराण,
भिभड़ाट सुणि सुणिक,
डरि डरिक भारी डरयुं छ,
यन लगण लग्‍युं जन,
भैर कखि भूत अयुं छ,
ह्वै सकदु बाग हो,
बाखरयौं कू भिभड़ाट,
ओबरा मच्‍युं छ,
कब खुललि काळी रात,
अंधेरु अड़ेथि दिन आलु,
डौर दूर होलि मन सी,
मन कू बैम मिटि जालु......
-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु,
कल्‍पना मा ठेट गढ़वाळि शब्‍दु का प्रयोग कू मेरु प्रयास
सर्वाधिकार सुरक्षित, दिनांक 10.6.2015

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