Thursday, June 11, 2015

झम्‍मज्‍याट भि नि पड़ि......



मेरा मुल्‍क का कुछ मनखि,
बैठ्यां था कछड़ि लगैक,
अर पेण लग्‍यां था दारु,
कुछ मनखि यना था,
जौंकु जिंदगी मा,
बल दारु हिछ सारु,
दारु विदेशी थै,
वींकु नशा घतघतु,
मनखि झटट सी,
नि ह्वै सकदु रंगमतु....
बोतळ खाली ह्वै,
हौर ल्‍हौण भि कखन थै,
काळी रात की बात थै,
तब एक मनखिन बोलि,
अरे भाई, क्‍या होलु,
झम्‍मज्‍याट भी नि पड़ि....
जै मनखि का घौर,
कछड़ि सजिं थै,
वेकु ऊ रिस्‍तेदार थौ,
ऊ तब कखिन,
जुगाड़ लगैक,
लोकन ब्राण्‍ड ल्‍हाई,
वे मनखिन घूंट लगाई,
तब रोठ्ठी खान्‍दु खान्‍दु,
झम्‍मज्‍याट दूर करि,
ऊताणदण्‍ड ह्वै ग्याई......
-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु,
कल्‍पना मा ठेट गढ़वाळि शब्‍दु का प्रयोग कू मेरु प्रयास
सर्वाधिकार सुरक्षित, दिनांक 11.6.2015

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