(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
बैठि थौ कबरी, सुण हे दगड़्या,
अपणा प्यारा, मुल्क पहाड़,
दोफरी कू घाम थौ, बगदु बथौं थौ,
डाळी थै झपन्याळि, बांज बुरांस की,
बासण लगिं थै, घुघती हिल्वांस,
हैंसण लग्युं थौ, बण मा बुरांस,
तू भी थै बैठ्युं, जरा याद कर,
बात छ हमारा, प्यारा बाळापन की,
वे दिन दगड़्या, बैठ्युं थौ मैं,
अंग्वाळ मारिक, हे तेरा गैल,
कुलदेवी चन्द्रबदनी का डंडा,
"झपन्याळि डाळी का छैल",
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरे ब्लॉग और पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
दिनांक: १२.५.२०११
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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