Friday, May 27, 2011

"भक्कु लगिगी"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
सुण हे भुल्ला,पाड़ की याद औणी,
भारी बितणी छ मन मा, हबरी छ सतौणी.....
पहाड़ छोड़ी दूर परदेश, लगदु छ भारी घाम,
झबड़ताळ सी लगदि छ, पीठी मा पड़दु डाम.....
दिन रात दनका दनकी, होईं रंदि छ राड़ धाड़,
ठंडा बथौं पाणी बिना, याद औन्दु प्यारू पहाड़.....
मेरा मुल्क प्यारी जगा छन, चन्द्रबदनी, अन्जनीसैण,
होला भग्यान काफल खाणा, मेरा प्यारा भाई बैण.....
ठण्डु पाणी छोया ढुंग्यौं कू, होला मनखी पेणा,
तिबारी डिंडाळ्यौं मा, फंसोरिक होला सेणा.....
द्योरू होलु बल बदलेणु, बरखा, बथौं अर किड़कताळ,
कथगा प्यारू लगणु होलु, ठण्डु प्यारू हमारू गढ़वाळ.
मेरा दगड़्या भौत होला, कखि दूर दूर परदेश,
होला ऊ भि भभसेणा, मन जौंकु, अबरी होलु गयुं गढ़देश....
"भक्कु लगिगी" भभसेणु छौं, तरसेणु छ पापी पराण,
मन मा बस्युं प्यारू मुल्क, कनुकै वख अबरी जाण......
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: २७.५.२०११
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.135.html
http://jagmohansinghjayarajigyansu.blogspot.com/
फेसबुक पर भी प्रकाशित
http://www.facebook.com/#!/Nautiyal1981
प्रिय मित्र नौटियाल जी, ग्राम बैंसोली, अन्जनीसैण की फरमाइश पर रचित.....

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