Tuesday, May 24, 2011

"रैबार"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")

औन्दु थौ कबरि, अब नि औन्दु,
प्यारा ब्वै बाबु कू, जीवन-संगिनी कू.....

प्यारा दगड़्यौं कू, मुल्क का मनख्यौं कू,
जब औन्दु थौ, क्वी दगड़्या गौं बिटि.....

तब पूछ्दा था, क्या रैबार अयुं छ मैकु?
रैबार यनु होंदु थौ, बेटा हौळ लगाण ऐजै.....

भैंसु अबरी लैंदु छ, टक्क लगिं छ हमारी,
छक्कि छक्किक दूध पीजा, घ्यू की माणी ल्हिजा,
बुबाजी कू रैबार, बेटा! मेरु शरील अब भलु निछ,
धाणि धंधा का बग्त, जरूर घौर ऐजै,
हमारा गौं मा ऐंसु, ह्यूंद देवतौं कू मंडाण लगलु,
उबरि तू घौर ऐजै, ग्राम देवतौं की पूजा छ,
जरूर शामिल ह्वैजै, अपणा हाथुन भेंट चढैजै,
क्या बोन्न अब? मोबाइल कू राज छ,
रैबार कू राज अब नि रै,
कखन औण अब रैबार, ऊ जमानु अब नि रै,
गौं बिटि अब कैन देण "रैबार"?
वा बात अब नि रै, कविमन मा "रैबार",
आज भी बस्युं छ, मन मा "जिज्ञासू" का....

(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: २३.५.२०११
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.135.html
http://jagmohansinghjayarajigyansu.blogspot.com/

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