(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
सच मा थै वा,
क्वी चरक न फ़र्क,
वे जमाना की अनपढ़,
एक दिन वींका बुबाजिन,
वींकी मागण करि दिनि,
वीं तैं कुछ भि पता ना,
एक दिन वींकी बारात आई,
वींकु ओलु थौ गाड़्युं,
बाद मा वीं पता लगि,
जवैं बुढ्या छ, बगत बिति,
तीन नौना अर चार नौनी,
वींका पैदा ह्वैन,
अर बुढ्या स्वर्ग सिधारिगी,
क्या करू अब "लाटी"?
वींन हिम्मत नि हारी,
बाल बच्चा पढै लिखैन,
कुछ समय बाद,
द्वी नौना फौज मा,
एक नौनु सरकारी नौकरी,
"लाटी" का घौर घ्यू का,
दिवा जगण लगिन,
अब वा "लाटी" नि रै,
वींकी जिंदगी मा,
बसगाळ ऐगी.
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लाग पर प्रकाशित)
दिनांक: २०.५.२०११
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.135.html
http://jagmohansinghjayarajigyansu.blogspot.com/
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Friday, May 20, 2011
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