जैकी छ हाम,
किलैकि वैका कारण,
बिगळेन मनखी,
दुखेन ऊँका दिल,
यनु भी बोल्दा छन ऊ,
पड़ी हमारी पीठी मा,
मुछाला कू सी डाम.
जी या बात सच छ,
पूछा ऊँ सनै,
क्या ख्वै क्या पाई?
निर्दयी था ऊ,
जौन योजना बणाई,
पहाड़ कू पाणी,
दूर दिल्ली तक पौंछाई,
बिजली बणनी छ,
वा पहाड़ छोड़िक दूर,
ऊँका घौर रोशन कन्नी छ,
जौंकु हक्क कतै निछ,
जौंकु थौ ऊँका घौर,
कखि रोशन त होला,
पर दिल मा दर्दयाळु अंधेरु,
"टिहरी डाम" का कारण.
रचनाकर: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
दिनांक: ५.५.२०११
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Thursday, May 5, 2011
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