(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
पौड़ी गढ़वाल का,
ढाँगु उदयपुर की,
नि छौं कन्नु बात....
बात यनि छ,
जब बल्द अर मनखी,
बुढ्या ह्वै जान्दु,
त वैकु बोल्दा छन,
बुढ्या "ढाँगु" ह्वैगि....
उत्तराखंड कू मोती ढाँगु,
जै फर लग्युं गीत,
पहाड़ मा प्रसिद्ध छ,
वैकु मोल नौ रूप्या,
पर वैका सिंग कू मोल,
सौ रूप्या थौ......
शरील कू सदानि,
साथ नि रंदु,
बल्द हो या मनखी,
एक दिन "ढाँगु" ह्वै जान्दु.
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहरी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: २२.५.२०११
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.135.html
http://jagmohansinghjayarajigyansu.blogspot.com/
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Monday, May 23, 2011
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