Friday, October 28, 2016

गढ़वाळि कवि.....



मैं जनु गढ़वाळि भाषा कू,
कवितौं कू घोर लोभी,
दूधबोलि भाषा पिरेमि,
जू सेन्दि बग्त भी सोच्दु,
कल्पना मा डूबिक,
कवितौं का बारा मा......
एक दिन कवि,
चा की दुकान मा बैठि,
दुकानदार पकोड़ि,
तेल मा तळ्नु थौ,
कवि कू ज्यु करि,
आज चा दगड़ि,
गरम गरम पकोड़ि खान्दु,
कंगालि सदानि रै,
अब दूर भी नि होण,
तब घौर जान्दु.....
दुकानदार ताती चा,
गिलास फर ल्हाई,
गरम पकोड़ि खलै देवा,
कविन फरमैस बताई.....
दुकानदार कागज फर,
सौ गराम गरम पकोड़ि ल्हाई,
खूब खवा हे कविवर,
पिरेम सी बताई.....
कविन देखि,
अर भौत अचरज ह्वै,
जै कागज फर,
दुकानदार जिन पकोड़ि दिनि,
मेरा कविता संग्रै कू,
 एक कू पेज छ,
कू निर्भागि रै होलु,
जै सनै मैंन फोगट मा,
कविता संग्रै भेंट करि,
बेचिगी कबाड़ी तैं,
ज्युंदा ज्यु मरिगी
कनु काम करिगी ......


कविन दुकानदार जी तैं,
दु:खि हवैक बताई,
या किताब आप मू,
कख बिटि आई,
दुकानदार जिन बोलि,
एक दिन एक कबाड़ी,
मेरी दुकान मा आई,
पकोड़ी देण का खातिर,
पुराणि किताब ली लेवा,
मैंमा फरमाई,
भौत दिनु बिटि किताब का,
पेज फाड़िक पकोड़ि,
बेचण लग्युं छौं,
पर मेरा बिंगण मा,
आपकी बात नि आई.....
कविन बोलि,
हे दुकानदार जी,
मेरा हात मा यू,
मेरी गढ़वाळि कविता संग्रै कू,
चिरयुं पेज छ,
मेरा मन तै दु:ख छ भारी,
जिंदगी भर गढ़वाळि कविता,
लिखणु रै लाचारी,
किलैकि मैं गढ़वाळि भाषा कू,
अति पिरेमि छौं,
सोचि थौ समाज मा,
दूधबोलि भाषा का प्रति,
पिरेम कू प्रचार करलु,
भविष्य सुखद हो भाषा कू,
भरसक प्रयास करलु.........

 -जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू
दिनांक 7/10/2016

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